JAIN-DHARMA

जैन धर्म | Jain Dharma || Ancient History

जैन धर्म (Jain Dharma)

जैन धर्म एक प्राचीन धर्म है जिसकी शुरुआत छठी शताब्दी ईसा पूर्व में एक धार्मिक सुधार आंदोलन के रूप में हुई थी। जैन धर्म का संस्थापक महावीर स्वामी को माना जाता है परंतु ऐसा नहीं है। महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर है।

उनसे पहले 23 तीर्थंकर हो चुके थे। महावीर स्वामी 24वें तथा अंतिम तीर्थंकर थे। जैन धर्म  पहले तीर्थंकर ऋषभदेव तथा 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे। ऋषभदेव और पार्श्वनाथ के बारे में जानकारी वेदों और पुराणों से मिलती है वेदों और पुराणों में इनके बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है।

इन सब के बावजूद भी महावीर स्वामी को जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक माना जाता है और इसका मुख्य कारण यह है कि उन्होंने जैन धर्म के सिद्धांतों में व्यापक परिवर्तन करके और उसमें धार्मिक सुधार करके उसे एक नया रूप दिया। अतः उन्होंने जैन धर्म में व्याप्त अनेक बुराइयों को समाप्त कर निर्वाण प्राप्ति के लिए एक नया मार्ग बताया। इसी कारण उन्हें जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है।

 

महावीर स्वामी (Mahavir Swami)

महावीर स्वामी का जन्म 599 ईसा पूर्व में आधुनिक बिहार के वैशाली के निकट कुण्डग्राम नामक स्थान पर ज्ञातृक क्षत्रिय परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ था जो की ज्ञातृक क्षत्रिय कुल के प्रधान थे तथा इनकी माता का नाम त्रिशला था जो कि वैशाली की लिच्छ्वी राजकुमारी थी। महावीर स्वामी का विवाह यशोदा नामक राजकुमारी से हुआ था। जैन धर्म के अनुसार उनकी एक पुत्री भी उत्पन्न हुई थी जिसका नाम प्रियदर्शना था। जिसका विवाह जमालि नामक क्षत्रिय के साथ हुआ था।

 

अन्य नाम (Other Names)

महावीर स्वामी के 3 अन्य नाम देखने को मिलते हैं। इनका पहला नाम वर्धमान था यह नाम उनके पिता ने रखा था उन्होंने महावीर का यह नाम इसलिए रखा क्योंकि वह राग और द्वेष में रहते थे। इनका दूसरा नाम श्रमण था क्योंकि वह सदा भय और शंका में डूबे रहते और दुख से उदासीन रहते थे। इनका तीसरा नाम अहर्त भिक्षु महावीर था उनको यह नाम ‘देवों’ द्वारा दिया गया है।

 

वैराग्य (Detachment)

जैन ग्रंथ कल्पसूत्र के अनुसार महावीर स्वामी ने माता- पिता की मृत्यु हो जाने के बाद अपने बड़े भाई नंदीवर्धन और राज्य के प्रमुख व्यक्तियों की आज्ञा पाकर 30 वर्ष की आयु में अपना गृह त्याग दिया। इसके बाद बड़े ही धूमधाम से अपने शिविका में बैठकर सेना और सवारी के साथ कुण्डग्राम के बीच से होते हुए षडवन नाम के उद्यान में पहुंचकर अशोक वृक्ष के नीचे रुके और अपने बालों को कटवा कर भिक्षु बन गए।

 

कैवल्य प्राप्ति (Attainment of Kaivalya)

सत्य की खोज में 30 वर्ष की आयु में गृह त्याग कर वह सन्यासी बन गए। इसके बाद उन्होंने कठोर तप करना शुरू किया शुरुआत में वह कपड़े पहन कर तप करते थे परंतु बाद में उन्होंने सुवर्ण बालुका नदी के पास अपने वस्त्रों को उतार कर फेंक दिया और हाथ में भिक्षापात्र लेकर नंगे घूमने लगे। 12 वर्ष तक कठोर तपस्या करने पश्चात जम्भिका ग्राम के निकट ऋजुपालिका नदी के तट पर शाल वृक्ष के नीचे उन्हें कैवल्य(ज्ञान) की प्राप्ति हुई।  इसके बाद से ही वह अहर्त, जिन, तीर्थंकर और महावीर कहलाए।

 

जैन संघ (Jain Sangh)

ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद महावीर स्वामी सबसे पहले पावा गए। यहां पर उन्होंने सर्वप्रथम 11 ब्राह्मणों को जैन धर्म में दीक्षित किया। इसके पश्चात उन्होंने अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाई और बाद में उन्होंने समस्त अनुयायियों को 11 समूहों में बांट दिया। 11 ब्राह्मण प्रत्येक समूह के प्रमुख माने जाते थे। इसके बाद संघ के समस्त सदस्यों को चार कोटियों में विभक्त कर दिया गया। यह चार कोटिया इस प्रकार थी- भिक्षु, भिक्षुणी, श्रावक, श्राविका। प्रथम दो कोटिया संसार त्यागी व्यक्तियों की थी जबकि अंतिम 2 कोटिया गृहस्थ व्यक्तियों की मानी जाती थी।

 

मृत्यु (Death)

ज्ञान प्राप्ति के पश्चात महावीर स्वामी 30 वर्ष तक कौशल, मगध, चंपा, मिथिला आदि अनेक राज्यों में भ्रमण करते हुए अपने धर्म का प्रचार करते रहे। लगभग 72 वर्ष की आयु में राजगिरी के समीप पावापुरी नामक स्थान पर उन्होंने 527 ईसा पूर्व में अपने शरीर को त्याग दिया।

 

जैन धर्म के सिद्धांत (Principles of Jain Dharma)

महावीर स्वामी ने जिन सिद्धांतों का प्रचार किया था वे सिद्धांत ही आज के जैन धर्म के मूल सिद्धांत माने जाते हैं। जैन तीर्थंकरों के उद्देश्यों व सिद्धांतों का संग्रह 12 आगम ग्रंथों में है जिसे आगम साहित्य कहा जाता है यह जैन साहित्य है।

जैन धर्म के अनुसार संसार दुखों से भरा पड़ा है। दुख का निवारण करना आवश्यक है। जैन धर्म भी दुःख का प्रमुख कारण तृष्णा को मानता था। जैन धर्म कर्मवाद के सिद्धांत पर विश्वास करता था और उसे मान्यता प्रदान करता था।

ईश्वर में अविश्वास (Disbelief in God)

जैन धर्म ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता था वह मानता था कि ईश्वर भी कर्मों से बंधे हुए हैं। वे संसार को अनंत मानते थे तथा ईश्वर के स्थान पर तीर्थंकरों की पूजा करते थे। तीर्थंकर वे होते थे जिन्हें इस दुख भरे संसार से मुक्ति मिल चुकी है।

आत्मा के अस्तित्व में विश्वास (Belief in the Existence of the Soul)

जैन धर्म आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करता था वह मानता था कि मृत्यु के बाद भी आत्मा सुख और दुख का अनुभव करती है। आत्मा अनंत है मृत्यु के बाद भी सुख दुख का अनुभव करते हुए आत्मा इस संसार में सदैव विद्यमान रहती हैं।

पंच महाव्रत (Panch Mahavrat)

संसार के बंधनों से मुक्त होने के लिए महावीर स्वामी ने पंच महाव्रत बतलाया है-

अहिंसा महाव्रत:- जानबूझकर या अनजाने में किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं होनी चाहिए।

 

असत्य त्याग महाव्रत:- भाषण सदैव सत्य और मधुर होना चाहिए इसके लिए निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

  1. बिना सोचे समझे कुछ नहीं बोलना चाहिए
  2. क्रोध आने पर मौन रहना चाहिए
  3. लोभ की भावना जागृत होने पर भाषण नहीं देना चाहिए
  4. भयभीत होने पर भी झूठ नहीं बोलना चाहिए
  5. हंसी मजाक में भी झूठ नहीं बोलना चाहिए

अस्तेय महाव्रत:- किसी दूसरे की वस्तु को उसकी इच्छा और अनुमति के बिना यह करने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। इसके अंतर्गत थी निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक है-

  1. बिना आज्ञा के किसी के घर के अंदर नहीं जाना चाहिए।
  2. गुरु की आज्ञा के बिना भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए।
  3. बिना अनुमति के किसी के घर में नहीं निवास करना चाहिए।
  4. किसी के घर में रहते हुए बिना जी स्वामी की आज्ञा के घर की किसी भी वस्तु को नहीं छूना चाहिए।

 

ब्रह्मचर्य महाव्रत:- जैन धर्म के अनुसार को भिक्षुओं को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना अति आवश्यक है। सिर्फ महाव्रत के अंतर्गत निम्न बातों का ध्यान रखना अति आवश्यक है

  1. किसी नारी से बात ना करें।
  2. किसी नारी को ना देखें।
  3. नारी संसर्ग का ध्यान भी ना करें।
  4. अधिक भोजन ना करें
  5. जिस घर में कोई नारी हो उस घर में विश्राम ना करें।

अपरिग्रह महाव्रत:- इस महाभारत के अनुसार जैन विश्व को किसी प्रकार धन संचय नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे लालच बढ़ता है।

पंच अणुव्रत (Panch Anuvrat)

जैन धर्म के अनुसार गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वालों को पंच अणुव्रत का पालन करना आवश्यक है। अणुव्रत निम्न प्रकार है-

  1. अहिंसाणु व्रत
  2. सत्याणु व्रत
  3. अस्तेयाणु व्रत
  4. ब्रह्मचर्याणु व्रत
  5. अपरिग्रहाणु व्रत

त्रिरत्न (Triratna)

महावीर स्वामी ने दुखों से मुक्ति पाने और मोक्ष प्राप्ति के लिए त्रिरत्न बहलाएं है। यह त्रिरत्न इस प्रकार है-

सम्यक ज्ञान:- सम्यक ज्ञान का अर्थ है सत्य और पूर्ण ज्ञान होना। सत्य और असत्य का ज्ञान होना ही सम्यक ज्ञान का जाता है।

सम्यक दर्शन:- सम्यक दर्शन का अर्थ है तीर्थंकरों में पूरा विश्वास करना। कुछ व्यक्तियों ने ऐसे विशेष गुण विद्यमान देते हैं ज्यादा कुछ इन्हें विद्या द्वारा अर्जित करते हैं।

सम्यक चरित्र:- सम्यक दर्शन का अर्थ है उचित और नैतिक चरित्र रखना। अहितकर और बुरे कार्यों को त्याग कर नैतिक और अच्छे कार्य करना और वैसे ही आचरण अपना लेना सम्यक चरित्र है।

पांच समितियां (Five Committees)

जैन धर्म में कई समितियां भी बताई गई है जिसके पालन करना सभी के लिए आवश्यक माना जाता था।

यह पांच समिति इस प्रकार है-

ईर्या समिति:- इस समिति के अंतर्गत व्यक्ति को आज्ञा दी गई है कि वह ऐसे मार्ग से चले जहां पर कीट- कीटाणुओं के पैर से कुछ ले जाने का भय ना हो।

 

भाषा समिति:- इसके अंतर्गत व्यक्तियों को मधुर और उचित भाषा बोलने की आज्ञा दी गई है।

 

एषणा समिति:- इसके अंतर्गत कहा गया है कि व्यक्तियों को ऐसे भोजन करना चाहिए जिससे किसी भी कीट- कीटाणुओं के साथ किसी भी प्रकार की कोई  हिंसा ना हो।

 

आदान क्षेपणा समिति:- इसके अंतर्गत भिक्षुओं को आज्ञा दी गई है कि वह जिस भी सामग्री का उपयोग करते हैं उनका उपयोग करते समय यह देख ले कि उससे किसी भी कीट- कीटाणुओं की हिंसा ना हो।

 

व्युत्सर्ग समिति:- इसके अंतर्गत कहा गया है कि ऐसे स्थान पर मल मूत्र नहीं त्यागना चाहिए जहां पर किसी कीट- कीटाणुओं के साथ हिंसा हो।

इस प्रकार जैन धर्म 5 समितियां बताई गई है जिसका पालन करना सभी के लिए आवश्यक हैं।

 

जैन सभाएं या संगीतियां (Jain Councils)

बौद्ध धर्म की तरह ही जैन धर्म में भी हमें संगीतियां देखने को मिलती हैं जैन धर्म में हमें दो जैन संगीतियां देखने को मिलती है-

 

प्रथम जैन संगीति:- प्रथम जैन संगीति  322 से 298 साल पूर्व में देखने को मिलती है। यह संगीति चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में हुई थी। यह संगीति स्थूलभद्र की अध्यक्षता में पाटलिपुत्र में हुई थी।

द्वितीय जैन संगीति:- द्वितीय बौद्ध संगीति छठी शताब्दी (512 ईसवी) में गुजरात के वल्लभी नामक स्थान पर हुई थी। इस समिति के अध्यक्ष क्षमाश्रवण थे। इसमें धर्म ग्रंथों का अंतिम संकरण किया गया और उन्हें लिपिबद्ध किया गया।

तो आज हमने जैन धर्म से रिलेटेड सभी चीज़े जान ली है | अब आगे हम मगध के उत्कर्ष के बारे में जानेंगे हम जानेंगे की मगध के उत्कर्ष में किन राजाओं ने मुख भूमिका निभाई और उस समय कितने वंशो का उदय हुआ | तब तक आप इससे पढ़ते रहे और अपना ज्ञान बढ़ाते रहे | हम आपके लिए ऐसे ही study से related articles लाते रहेंगे |

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