Ancient History Later Vedic Period

Vedic Period | उत्तर वैदिक [Later Vedic Period]

उत्तर वैदिक कालीन जानकारी के स्रोत

उत्तर वैदिक काल के बारे में हमें प्रमुख रूप से दो तरह से जानकारी प्राप्त होती है पहला, पुरातात्विक साक्ष्य द्वारा जबकि दूसरा, साहित्यिक साक्ष्य द्वारा।

पुरातात्विक साक्ष्यों में हमें सर्वप्रथम लोहे के उपकरण प्राप्त होते हैं। उत्तर वैदिक काल 1000 ईसा पूर्व से माना जाता है इसी काल में लगभग 1000 ईसा पूर्व में कृषि से संबंधित लोहे के सर्वप्रथम साक्ष्य अतरंजीखेड़ा से प्राप्त हुए है। लोहे के साक्ष्य इससे पहले किसी भी काल में नहीं पाया गया अर्थात लोहे के सर्वप्रथम साक्ष्य 1000 ईसा पूर्व में अतरंजीखेड़ा से प्राप्त हुए हैं। लोहे के यह साक्ष्य भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। उत्तर वैदिक काल से प्राप्त लोहे  पुरातात्विक साक्ष्यों में सबसे प्रमुख माने जाते हैं और यह उत्तर वैदिक काल के बारे में जानकारी देते हैं।

जानकारी का दूसरा स्त्रोत साहित्यिक स्रोत हैं। साहित्यिक स्रोतों में सर्वप्रथम वेद आते हैं। ऋग्वेद को छोड़कर अन्य तीन वेद यानी सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद की रचना उत्तर वैदिक काल में ही की गई थी। इसके बाद कुछ अन्य स्त्रोत जैसे ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक ग्रंथ और उपनिषद भी उत्तर वैदिक कालीन सभ्यता के बारे में जानकारी देते हैं।

उत्तर वैदिक कालीन समाज

 

सामाजिक दशा

ऋग्वैदिक काल के सामाजिक दशक की तुलना में उत्तर वैदिक काल की सामाजिक दशा में परिवर्तन हो गया था जब परिवर्तन निम्नलिखित प्रकार से देखा जा सकता है।

वर्ण व्यवस्था

ऋग्वैदिक काल की तुलना में उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था में बदलाव आया। समाज चार वर्गों में विभाजित था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ऋग्वैदिक काल में इन चारों वर्णों की स्थिति अच्छी थी परन्तु उत्तर वैदिक काल में यह स्थिति बदल गई थी। उत्तर वैदिक काल में शुद्र का उपनयन संस्कार बंद कर दिया गया तथा उन्हें शिक्षा प्राप्त करने से वंचित कर दिया गया। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों की स्थिति अच्छी थी।

ब्राह्मण इसे समाज में सबसे ऊंचे स्थान प्राप्त था। पुरोहित, राज्यमंत्री, शिक्षक, आचार्य तथा ऋषि आदि इसी वर्ग में आते थे। राजा भी सिंहासन से उतरकर ब्राह्मणों को प्रणाम करता था।

क्षत्रिय ब्राह्मण के बाद समाज में दूसरा स्थान क्षत्रियों को प्राप्त था यह युद्ध संबंधी कार्य करते थे तथा बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करते थे। ये भी ब्राह्मणों की तरह शास्त्र विद्या में निपुण थे।

वैश्य समाज में तीसरा स्थान वैश्य जाति कोई प्राप्त था। यह व्यापार खेती तथा पशुपालन संबंधी कार्य करते थे। धनी वैश्यो के लिए श्रेष्ठ तथा गृहपति शब्द का प्रयोग किया जाता था।

शूद्र समाज में सबसे दयनीय स्थिति शूद्रों की थी समाज की सेवा का सारा बार इन्हीं के ऊपर था लोगों की सेवा करना इनका कार्य करता था। ऋग्वैदिक काल की तुलना में उत्तर वैदिक काल में शूद्रों को शिक्षा से वंचित कर दिया गया था अर्थात अब शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था।

आश्रम व्यवस्था

उत्तर वैदिक काल में हमें एक और नई व्यवस्था देखने को मिलती है और यह व्यवस्था आश्रम व्यवस्था थी। आश्रम व्यवस्था में मनुष्य के जीवन को चार भागों में विभाजित कर दिया गया था अर्थात मनुष्य की आयु के अनुसार उसके जीवन के कार्यों को बांट दिया गया था। आर्यों का ऐसा विश्वास था कि मनुष्य को इन चार आश्रमों में रहकर देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण तथा गृह ऋण अदा करना पड़ता था अतः उन्होंने आश्रम व्यवस्था की शुरुआत की। आश्रम व्यवस्था इस प्रकार हैं।

ब्रह्मचर्य आश्रमजीवन के प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम के अंतर्गत आते थे। इसमें मनुष्य अविवाहित रहकर विद्या प्राप्त करता था और गुरु के आश्रम में रहता था

गृहस्थ आश्रम प्रथम 25 वर्ष पूरे हो जाने के बाद अगले 25 वर्ष गृहस्थ आश्रम के होते थे। इसमें मनुष्य विवाह करके गृहस्थ जीवन व्यतीत करता था तथा धनोपार्जन करके धार्मिक कार्यों को संपन्न करता था।

वानप्रस्थ आश्रम 50 वर्ष से लेकर 75 वर्ष तक का समय वानप्रस्थ आश्रम का होता था। यह भी 25 वर्ष तक होता था। इन वर्षों में मनुष्य अपना गृहस्थ जीवन त्याग कर वनों में चला जाता था और धनोपार्जन का मोह माया त्याग कर वनवासी बन जाता था।

संन्यास आश्रम जीवन के अंतिम 25 वर्ष संन्यास आश्रम के होते थे। इन वर्षों में मनुष्य सभी मोह माया त्याग कर ईश्वर से चिंतन तथा मोक्ष प्राप्ति की चेष्टा करता था।

इस प्रकार आर्यों ने मनुष्य के जीवन को 100 वर्षों में विभाजित कर दिया था और उन्हें आश्रम व्यवस्था में स्थापित कर दिया था।

स्त्रियों की दशा

ऋग्वैदिक काल की तुलना में उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा में बदलाव आया। इस काल में स्त्रियों की दशा खराब हो गई। स्त्रियों की स्वतंत्रता अब पहले से कम हो गई थी। उन्हें सभा एवं समितियों में भाग नहीं लेने दिया जाता था तथा साथ ही उनकी शिक्षा पर भी रोक लगा दी गई थी। स्त्रियों का गुरुकुल में प्रवेश वर्जित कर दिया गया था अर्थात उनका उपनयन संस्कार भी बंद हो गया था।

केवल राजघराने की स्त्रियों को है शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था और वे भी घर पर रहकर ही शिक्षा प्राप्त करती थी। ऋग्वैदिक काल में हमें बहुत सारी विदुषी महिला देखने को मिलती है परंतु उत्तर वैदिक काल में हमें यह विदुषी महिलाएं नहीं देखने को मिलते हैं। उत्तर वैदिक काल में हमें सती प्रथा का भी उल्लेख मिलता है तथा साथ ही बाल विवाह भी देखने को मिलता है। विवाह में दहेज प्रथा का प्रचलन था परंतु बहुविवाह प्रथा प्रचलित है।

गोत्र प्रथा

उत्तर वैदिक काल में हमें एक नई प्रथा गोत्र प्रथा भी देखने को मिलती है। गोत्र शब्द का अर्थ है- गोष्ठ या वह स्थान जहां समूचे कुल का गोधन पाला जाता था। लेकिन कालांतर में यह शब्द एक समुदाय विशेष के लिए इस्तेमाल होने लगा अर्थात मूल पुरुष से व्युत्पन्न लोगों के समुदाय के अर्थ में यह शब्द उपयोग होने लगा। इसके अनुसार एक ही गोत्र या मूल पुरुष वाले लोगों में विवाह संबंध नहीं हो सकता था।

आर्थिक दशा

ऋग्वैदिक काल की तुलना में उत्तर वैदिक काल की आर्थिक दशा में भी कई बदलाव आए यह बदलाव इस प्रकार है।

कृषि

इस युग में आर्यों की आर्थिक व्यवस्था का मूलाधार कृषि और पशुपालन ही था। इस समय अनेक प्रकार की फसलें बोई जाने लगी थी जिसने धान, उड़द, जौ और तिल उल्लेखनीय है। हलो में 24-24 तक बैल जोते जाने लगे थे। खेती की उपज बढ़ाने के लिए खाद का भी प्रयोग होने लगा था। अब आर्य साल में दो फसलें उगते थे कथा साथ ही वे अनेक प्रकार के फलों एवं सब्जियों से भी परिचित हो चुके थे।

उद्योग धंधे

उत्तर वैदिक काल में उद्योग धंधों में उन्नति हुई। इस काल में हमें बढ़ई, लोहार, सोनार, जुलाहा, धोबी, नाई, आखेटक, रस्सी बनाने वाले तथा कुम्हार आदि का उल्लेख मिलता है।

व्यापार

उत्तर वैदिक काल में व्यापार के क्षेत्र में भी काफी विकास। निष्क तथा शतमान आदि मुद्रा का प्रचलन तो इस काल में पहले ही हो चुका था। आर्य दूर देशों से व्यापार करते थे। आंतरिक व्यापार पर्वतों के निवासियों से किया जाता था इनसे आर्यों को जड़ी बूटियां तथा बहुमूल्य पत्थर प्राप्त होते थे। स्थल मार्ग के अतिरिक्त जल मार्ग द्वारा भी व्यापार होता था।

राजनीतिक दशा

पूर्व वैदिक काल की अपेक्षा उत्तर वैदिक काल में राजनीतिक विषय में परिवर्तन हुआ इस कार में साम्राज्यवाद की भावना का प्रादुर्भाव प्रारंभ हो गया था।

राजा

इस काल में राजा की स्थिति में भी परिवर्तन हुआ। वह पहले से ज्यादा शक्तिशाली और स्वेच्छाचारी हो गया था। अब उसका पद देवतुल्य समझा जाने लगा था परंतु पहले की ही भांति अब भी सभा और समिति उसके कार्यों पर नियंत्रण रखती थी। अब सम्राट के लिए विशेष प्रकार के यज्ञों का प्रावधान शुरू हो गया था। राजा के राज्याभिषेक के समय ‘राजसूय यज्ञ’ का अनुष्ठान किया जाता था। इसी प्रकार सम्राट के लिए वाजपेय, स्वराट के लिए ‘अश्वमेध‘ तथा विराट के लिए ‘पुरुषमेध‘ जैसे यज्ञों का विधान शुरू हो गया था।

 

राज कर्मचारी

इस काल में राज्य कर्मचारियों का भी महत्व बहुत बढ़ गया था। पूर्व वैदिक काल में इनकी संख्या कम थी। इनमें सेनापति, पुरोहित और ग्रामीण होते थे और यह ही प्रमुख माने जाते थे परंतु उत्तर वैदिक काल में इनकी संख्या बढ़ने लगी और यह संख्या बढ़कर 12 हो गई। के सभी कर्मचारी रत्निन कहलाते थे।

राजनीतिक संगठन

इस काल में शासन व्यवस्था का भी विकास हुआ। पहले की ही तरह अभी भी ग्राम का मुख्य पदाधिकारी ग्रामीण था तथा परंतु अब इसके ऊपर कुछ अन्य अधिकारी जैसे दसग्रामी, विशपति और शतग्रामी होने लगे थे इनके ऊपर अधिपति होता था। जिसका कार्य अपने-अपने क्षेत्र में राज कर वसूल करना और न्याय संबंधी कार्यों को देखना था।

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