Ancient History Early Vedic Period

Vedic Period | ऋग्वैदिक काल [Early Vedic Period]

वैदिक काल [Vedic Period]

सिंधु घाटी सभ्यता के पश्चात भारत में वैदिक काल के पदार्पण हुआ इसका कार्यकाल 1500 ईसा पूर्व 600 ईसा पूर्व माना जाता है। वैदिक काल को दो भागों में विभाजित किया गया है – प्रथम, ऋग्वैदिक काल जिसका विस्तार 1500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व माना जाता है, इसके पश्चात अन्य ब्राह्मण, संहिताओं, आरण्यक, उपनिषद और सूत्रों पर आधारित काल उत्तर वैदिक काल का विस्तार हुआ जिसका कार्यकाल 1000 ईसा पूर्व से 600 ईसा पूर्व माना जाता है।

वैदिक सभ्यता के निर्माता आर्य माने जाते हैं जिसका अर्थ उत्तम या श्रेष्ठ होता है। ईरानी पुस्तक जेंदवेस्ता तथा बोगज़कोई अभिलेख में आर्यों को ईरान का बताया गया है। मैक्स मूलर ने आर्यों को मध्य एशिया का निवासी कहा है। आर्यों के मूल निवास स्थान के संबंध में विद्वानों में विभिन्न प्रकार से मतभेद है जैसे डॉ० संपूर्णानंद आर्यों को सप्त सैंधव प्रदेश का निवासी बताते है जबकि एल० डी० कल्लो उन्हें कश्मीर का, डी० एस० त्रिवेदी उन्हें मुल्तान का तथा गंगानाथ झा उन्हें ब्रहर्षी देश का निवासी बताते हैं। यह सभी मत भारतीय विद्वानों के हैं।

लेकिन इसके साथ ही कुछ विदेशियों के भी मत है जिसमें बाल गंगाधर तिलक आर्यों को उत्तर ध्रुव का, दयानंद सरस्वती उन्हें तिब्बत का, पी० गाइस और नेहरिंग उन्हें हंगरी का तथा हर्ट और पेनका उन्हें जर्मनी का निवासी मानते है। परंतु इन सभी विद्वानों के मतों की तुलना में मैक्स मूलर द्वारा बताए गए मध्य एशिया के निवासी होने का मत सर्वाधिक मान्य है अर्थात आर्यों का मूल निवास स्थान मैक्स मूलर द्वारा बताया गया मध्य एशिया ही माना जाता है। आर्य द्वारा निर्मित सभ्यता वैदिक सभ्यता कहलाई। यह एक ग्रामीण सभ्यता थी। आर्यों की भाषा संस्कृत थी।

 

ऋग्वैदिक काल [Early Vedic Period]

ऋग्वैदिक काल या पूर्व वैदिक काल की जानकारी का स्त्रोत

इस काल की जानकारी का मुख्य स्त्रोत आर्यों के वैदिक साहित्य ऋग्वेद से प्राप्त होते हैं। ऋग्वेद का रचनाकाल 1500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व तक माना जाता है। ऋग्वेद में 10 मंडल, 1028 सूक्ति एवं 10,462 ऋचाएं हैं इन ऋचाओं को पढ़ने वाले ऋषि को होतृ कहते हैं। ऋग्वेद से हमें आर्यों की राजनीतिक प्रणाली, इतिहास एवं ईश्वर के प्रति उनकी महिमाओं के बारे में जानकारी मिलती है।

ऋग्वेद की रचना विश्वामित्र ने की है लेकिन कहीं कहीं इसके रचयिता महर्षि वेद व्यास भी माने जाते हैं। ऋग्वेद के तीसरे मंडल में सूर्य देवता सावित्री को समर्पित प्रसिद्ध गायत्री मंत्र को दिया गया है तथा इसके 9वें मंडल में देवता सोम का उल्लेख है।

ऋग्वेद के दसवें मंडल में पुरुष सूक्त का उल्लेख है जिसके अनुसार 4 वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) आदि पुरुष ब्रह्मा के मुख, भुजाओं, जंघाओं और चरणों से उत्पन्न माने जाते हैं।

 

ऋग्वैदिक काल की सामाजिक स्थिति

पारिवारिक जीवन

ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक समाज था। परिवार के मुखिया को कुलप कहा जाता था पिता ही परिवार का मुखिया होता था। ऋग्वैदिक समाज में जन व धन की सुरक्षा के लिए सामूहिक परिवार की व्यवस्था थी अर्थात परिवार के सभी लोग एक साथ रहते थे। पिता के पश्चात परिवार का गृहपति प्रायः सबसे बड़ा पुत्र होता था।

 

स्त्रियों की दशा

ऋग्वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति अच्छी थी। महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। स्त्रियों का उपनयन संस्कार होता था तथा वे गुरुकुल में भी शिक्षा ग्रहण करती थी। ऋग्वैदिक काल में कुछ विदुषी महिलाओं का उल्लेख भी मिलता है जिसमें घोषा, अपाला, गार्गी, विश्वरा, अत्रे और मैत्री जैसी महिलाएं प्रमुख थी। स्त्रियां सभा और समिति में भी भाग लेती थी।

ऋग्वैदिक काल में बाल विवाह का प्रचलन नहीं था। वैदिक समाज में विवाह एक धार्मिक एवं पवित्र कर्तव्य समझा जाता था। बहु विवाह की भी प्रथा प्रचलित थी परन्तु यह मुख्यता राजघरानों तक ही सीमित थी। विधवा विवाह का भी प्रचलन था। समाज में स्त्रियों को सम्मान की स्थिति प्राप्त थी। पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था स्त्रियों को पर्याप्त स्वतंत्रता थी। उनकी शिक्षा की भी उचित व्यवस्था की गई थी जो स्त्रियां पर्याप्त शिक्षित थी उन्होंने कुछ वैदिक मंत्रों की रचनाएं भी की थी।

स्त्रियां, पुरुषों के समान ही धार्मिक और सामाजिक कार्यों में भाग लिया करती थी। यज्ञ जैसे कार्यों में भी उनकी उपस्थिति अनिवार्य होती थी। पिता की संपत्ति का उत्तराधिकारी पुत्र होता था परंतु पुत्र के न होने पर पुत्री थी उत्तराधिकारी हो सकते थी। ऋग्वैदिक काल में विवाह के आठ प्रकार के थे जिसमें ‘राक्षस‘ और ‘पैशाच‘ विवाह अग्रहणीय माने जाते थे। गांधर्व और ब्राह्म विवाहों में ब्रह्म विवाह अधिक प्रचलित था।

 

आहार

आर्य लोग दूध, घी और पनीर का सेवन करते थे। वे लोग दूध से बने पदार्थ का उपयोग अधिक करते थे। जो लोग मांस प्रेमी थे वह बकरी और भेड़ का मांस खाते थे। गाय को मारना जघन्य (पाप) समझा जाता था। विवाह के अवसर पर अतिथि-सत्कार के लिए बैल के मांस का प्रयोग किया जाता था। आर्य लोग सोमरस ओर सुरा नामक नशीली शराब का सेवन करते थे।

 

वेशभूषा

आर्य को सादगी पसंद थी। वे प्रायः तीन वस्त्र धारण करते थे।(1) नीवी– जो कमर के नीचे पहने जाता था अर्थात जो स्त्री और पुरुष के लिए धोती के सामान थी।(2) वास – जो शरीर पर धारण किया हुआ अंगरखा सरीखा होता था और (3) अधिवास -जो ऊपर से धारण किया जाता था अर्थात यह चादर ओर ओढ़नी की तरह होता था। उनके वस्त्र प्रायः सूती, ऊनी और रंग बिरंगे होते थे। यह लोग सिर पर पगड़ी बांधते थे। स्त्री तथा पुरुष दोनों ही मालाएं, अंगूठियां, हाथों और पैरों में कड़े तथा आभूषण धारण करते थे।

 

आर्थिक जीवन

कृषि

आर्यों की आर्थिक व्यवस्था का मूल आधार कृषि तथा पशुपालन था। यह भूमि की जुताई करने के लिए हलो एवं बैलों का प्रयोग करते थे। भूमि की जुताई में 6,8 और 12 बैलों का प्रयोग किया जाता था। खेतों की सिंचाई झीलों, नहरों और नालियों द्वारा की जाती थी। आर्य लोग चावल, जौ, सरसों, तेल, गेहूं, मसूर आदि की पैदावार करते थे। ये लोग चावल का मुख्य रूप से उपयोग करते थे।

 

पशुपालन

आर्यों के आर्थिक जीवन का मूल आधार पशुपालन भी था। ये लोग गाय, भेड़, बकरी तथा हाथी पशु के रूप में पालते थे। आर्यों का प्रिय पशु घोड़ा था। खेत जोतने के लिए बैल का उयोग किया जाता था। पशुओं के कान में उनके मालिक का चिह्न अंकित रहता था।

 

उद्योग धंधे

ऋग्वैदिक काल में उद्योग धंधे उन्नति स्थिति में थे। बढ़ाई रथ और गाड़ियां बनाते थे तथा लकड़ी पर नक्काशी का कार्य करते थे। लोहार धातु के बर्तन बनाते थे तथा सुनार सोने के आभूषण बनाया करते थे। इस काल में कपड़ों की भी बुनाई होती थी स्त्रियों भी कढ़ाई, बुनाई, कताई और पिसाई का काम जानती थी।

 

व्यापार

ऋग्वैदिक काल में व्यापार भी होता था तथा व्यापार वस्तु विनिमय द्वारा होता था अर्थात एक वस्तु के स्थान पर दूसरी वस्तु लेना या देना। विनिमय के लिए गाय का उपयोग होता था। किंतु इस समय निष्क नामक सोने के सिक्के भी आर्यों द्वारा प्रचलित किए गए थे। व्यापारिक वर्ग पणि कहलाता था। इस काल में समुद्री मार्ग द्वारा दूसरे देशों से भी व्यापार होता था। व्यापार के लिए नावों का इस्तेमाल किया जाता था।

 

राजनीतिक दशा

राजा

राष्ट्र का प्रमुख राजा था। राजा युद्ध एवं शांति दोनों ही जनों का नेता होता था। राजा बड़े वैभव के साथ महल में निवास करते थे तथा उनके चारों और सेवक होते थे। राजा तथा उसके उत्तराधिकारियों का चुनाव समिति द्वारा किया जाता था। राजा का मुख्य कर्तव्य प्रजा की देखभाल करना और जनकल्याण के बारे में सोचना था। न्याय संबंधित कार्यों में भी राजा सर्वोच्च होता था।

 

राज कर्मचारी

राष्ट्र में राजा के बाद दूसरा स्थान राज कर्मचारियों का होता था। इन राज्य कर्मचारियों में पुरोहित, सेनापति और ग्रामीण होते थे। पुरोहित धर्म संबंधी कार्यों को देखते थे जैसे यज्ञ करना, पूजा पाठ करना आदि। इसके बाद सेनापति आता था जो कि सेना का प्रमुख होता था इसके अंतर्गत बहुत सारे सैनिक होते थे युद्ध का संचालन सेनापति द्वारा किया जाता था। सबसे अंत में ग्रामीण आता था जोकि गांव का मुखिया होता था। यह अपने गांव के सभी मामलों को देखता था तथा सभी मामलों को राजा के पास पहुंचाता था।

 

सभा तथा समिति

राजा पर दो संस्थाएं प्रमुख रूप से नियंत्रण रखती थी। ये दो संस्थाएं सभा और समिति थी। सभा और समिति राजा को परामर्श देने का कार्य करती थी तथा राजा के कार्यों पर नियंत्रण रखती थी। समिति समस्त जनता की बड़ी संस्था थी जबकि सभा वृद्ध जनों की छोटी और चुने हुए संस्था होती थी। सभा और समिति दोनों का कार्य राजा का निर्वाचित करना, उन्हें राजा के पद से हटाना तथा राजा के निर्वाचन की प्रक्रियाएं निर्धारित करना था। हालांकि इनके कार्य के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं प्राप्त हो पाई है।

 

राजनीतिक संगठन

राजनीतिक संगठन का मूल आधार गृह अथवा कुल था कुलपति की आज्ञा मानना सबके लिए अनिवार्य था। कई कुलों को मिलाकर ग्राम का निर्माण होता था। ग्राम का मुखिया ‘ग्रामीण‘ कहलाता था। ग्राम के बड़े संगठन को ‘विश‘ कहते थे। जिसका अधिकारी ‘विशपति‘ होता था। विश से बड़े संगठन ‘जन या जनपद‘ होते थे। जिसका अधिकारी राजन होता था। राज्य के लिए राष्ट्र शब्द का उपयोग किया जाता था।

 

Also Read – Indus Valley Civilization